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सतावर की बाजार में भारी मांग, एक एकड़ से 6 लाख की कमाई, सरकार से 30 प्रतिशत अनुदान

Published - 13 Jul 2020

सतावर की खेती करेगी किसान को मालामाल

कोरोना महामारी ने सभी के जीवन को प्रभावित किया है। इसका मुख्य असर लोगों की आमदनी पर पड़ा है। इस महामारी के संक्रमण के कारण कई लोगों का रोजगार छूट गया है और कई बेरोजगार युवक खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं। ऐसे समय में खेती के क्षेत्र में कम समय में अधिक कमाई देने वाली फसलों को उगाना ही एक मात्र विकल्प है। इसके लिए औषधीय फसलों की खेती प्रमुख रूप से मददगार साबित हो सकती है। इन्हीं औषधीय फसलों में सतावर का नाम प्रमुख है। दवाओं में इसका उपयोग होने से सतावर की बाजार में बहुत डिमांड रहती है।

बात करें इससे होने वाली इनकम की तो आधुनिक ढंग से इसकी एक एकड़ में इसकी खेेती कर 6 लाख रुपए तक की आमदनी प्राप्त की जा सकती है। इसकी खेती के लिए सरकार भी किसानों को 30 प्रतिशत तक अनुदान देती है। आइए जानते हैं इसकी व्यवसायिक खेती किस प्रकार कर लाखों की कमाई की जा सकती है। हम आपको ट्रैक्टर जंक्शन के माध्यम से इसकी खेती की पूरी जानकारी देंगे ताकि आप इसकी खेती कर अच्छी कमाई कर सकें।  

 

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क्या है सतावर

सतावर अथवा शतावर (वानस्पतिक नाम- Asparagus racemosus / ऐस्पेरेगस रेसीमोसस) लिलिएसी कुल का एक औषधीय गुणों वाला पादप है। इसे शतावर, शतावरी, सतावरी, सतमूल और सतमूली के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत, श्री लंका तथा पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है। इसका पौधा अनेक शाखाओं से युक्त कांटेदार लता के रूप में एक मीटर से दो मीटर तक लंबा होता है। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होतीं हैं। इसकी एक और कांटे रहित जाति हिमलाय में 4 से 9 हजार फीट की ऊंचाई तक मिलती है, जिसे एस्पेरेगस फिलिसिनस नाम से जाना जाता है। यह 1 से 2 मीटर तक लंबी बेल होती है जो हर तरह के जंगलों और मैदानी इलाकों में पाई जाती है। 

 

 

इन दवाओं में होता है इसका उपयोग

आयुर्वेद में इसे ‘औषधियों की रानी’माना जाता है। इसकी गांठ या कंद का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें जो महत्वपूर्ण रासायनिक घटक पाए जाते हैं वे हैं ऐस्मेरेगेमीन ए नामक पॉलिसाइक्लिक एल्कालॉइड, स्टेराइडल सैपोनिन, शैटेवैरोसाइड ए, शैटेवैरोसाइड बी, फिलियास्पैरोसाइड सी और आइसोफ्लेवोंस। सतावर का इस्तेमाल दर्द कम करने, महिलाओं में स्तन्य (दूध) की मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जन के समय होने वाली जलन को कम करने और कामोत्तेजक के रूप में किया जाता है। इसकी जड़ तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र की बीमारियों के इलाज, ट्यूमर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है। यह पौधा कम भूख लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है।

अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका वजन कम है, उन्हें भी ऐस्पैरेगस से फायदा होता है। इसे महिलाओं के लिए एक बढिय़ा टॉनिक माना जाता है। इसका इस्तेमाल कामोत्तेजना की कमी और पुरुषों व महिलाओं में बांझपन को दूर करने और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के इलाज में भी होता है। इसका उपयोग सिद्धा तथा होम्योपैथिक दवाइयों में होता है। यह आकलन किया गया है कि भारत में विभिन्न औषधियों को बनाने के लिए प्रति वर्ष 500 टन सतावर की जड़ों की जरूरत पड़ती है।

 

सतावर की खेती  ( Satavar Farming ) के लिए मिट्टी एवं जलवायु

सामान्यत: इस फसल के लिए लैटेराइट, लाल दोमट मिट्टी जिसमें उचित जल निकासी सुविधा हो, उसे प्राथमिकता दी जाती है। चूंकि रुटीड फसल उथली होती है अत: एस प्रकार की उथली तथा पठारी मृदा के तहत जिसमें मृदा की गहराई 20-30 से.मी. की है उसमें आसानी से उगाया जा सकता है। यह फसल विभिन्न कृषि मौसम स्थितियों के तहत उग सकती है जिसमें शीतोष्ण (टैम्परेट) से उष्ण कटिबंधी पर्वतीय क्षेत्र शामिल हैं। इसे मामूली पर्वतीय जैसे शेवरोज, कोली तथा कालरेयान पर्वतों तथा पश्चिमी घाट माध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जहां क्षेत्र की ऊंचाई समुंद्र ताल से 800 से 1500 मी. के बीच स्थित है, उनमें भी उगाया जा सकता है। यह सूखे के साथ- साथ न्यूनतम तापमान के प्रति भी सहनशील है। इसकी खेती के लिए 600 से 1000 मिमी या इससे कम वार्षिक औसत वर्षा जरूरी होती है।

 

सतावर की किस्में

जे.एस.1 इसकी किस्म है परंतु इस फसल में अब तक कोई नामित किस्म विकसित नहीं की गई। यदि मार्केट से अच्छी क्वालिटी के बीज लिए जाए तो उसकी एक क्विंटल की कीमत 50 से 60 हजार रुपए है। 

 

खेत की तैयारी व रोपाई

सतावर की रोपाई जुलाई माह में की जाती है। इसका रोपड़ जड़ या बीजों द्वारा किया जाता है। व्यावसायिक खेती के लिए, बीज की तुलना में इसके जड़  चूषकों को वरियता दी जाती है। इसकी रोपाई के लिए मिट्टी को 15 सेमी. की गहराई तक अच्छी तरह खोदा जाता है। खेत को सुविधाजनक आकार के प्लांटों में बांटा जाता है और आपस में 60 सेमी. की दूरी पर रिज बनाए जाते हैं।  इसके बाद  अच्छी तरह विकसित जड़ चूषकों को रिज में रोपित किया जाता है।

 

सिंचाई की आवश्यकता 

रोपण के तुरंत बाद खेत की सिंचाई की जाती है। इसके बाद एक माह तक नियमित रूप से 4-6 दिन के अंतराल पर इसकी सिंचाई करनी चाहिए। उसके बाद सात दिन के अंतर में सिंचाई की जानी चाहिए। 

 

खरपतवार  नियंत्रण 

इसकी बढ़ोतरी के आरंभिक समय के दौरान नियमित रूप से खरपतवार निकाली जानी चाहिए। खरपतवार निकालते समय एस बात का ध्यान रखा जाय की बढऩे वाले प्ररोह को किसी बात का नुकसान न हो। फसल को खरपतवार निकालने की जरुरत होती है। लता रूपी फसल होने के कारण इसकी उचित वृद्धि के लिए इसे सहायता की जरूरत होती है। इसकेे लिए 4-6 फीट लंबे स्टेक का उपयोग सामान्य वृद्धि की सहायता के लिए किया जाता है। व्यापक स्तर पर रोपण में पौधों को यादृच्छिक पंक्ति में ब्रश वुड पैगड पर फैलाया जाता है।

 

पौधे की सुरक्षा 

इस फसल में कोई गंभीर नाशीजीवी और रोग देखने में नहीं आए हैं। इसलिए इसे रोगों से सुरक्षा करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है।

 

फसल तैयार होने में लगने वाला समय व प्राप्त उपज

इसकी फसल 18 महीने में तैयार होती है। इससे 18 महीने बाद गिली जड़ प्राप्त होती हैं। इसके बाद जब इनको सुखाया जाता है तो इसमें वजन लगभग एक तिहाई रह जाता है। यानि अगर आप 10 क्विंटल जड़ प्राप्त करते हैं तो सुखाने के बाद यह केवल 3 क्विंटल ही रह जाती हैं। फसल का दाम जड़ों की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है।

 

कहां बेच सकते हैं उपज और कितनी हो सकती है कमाई

सतावर की उपज को आयुर्वेदिक दवा कंपनियों को डायरेक्ट बेचा जा सकता है या फिर आप इसे हरिद्वार, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, बनारस जैसे बाजारों में बेच सकते हैं। ऐसे में अगर आप बेहतर क्वालिटी की 30 क्विंटल जड़ें भी बेच पाते हैं तो आपको 7 से 9 लाख रुपए आसानी से मिल जाएंगे। अगर भाव और पैदावार कम मानी जाए तब भी 6 लाख रुपए तक आसानी से कमाए जा सकते हैं।

 

 

खेती के लिए मिलने वाला अनुदान (सब्सिडी)

सतावर की खेती करने वाले किसानों को राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड की ओर  से 30 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है।

 

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