जानें, चने की नई किस्मों के बारें में और रखें कुछ सावधानियां तो होगा भरपूर मुनाफा
भारत में रबी की फसल में चना की फसल का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इसकी बाजार में मांग हमेशा बनी रहती है। अन्य फसलों की अपेक्षा इसके बाजार में भाव भी अच्छे मिलते हैं। यदि इसकी उन्नत किस्म का चयन किया जाए तो इसका अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसकी फसल में इसके दाने के आकार का बड़ा महत्व होता है। दानों के आकार के आधार पर ही इसके बाजार में भाव निर्धारित किए जाते हैं। बाजार में मोटे दाने के चने की मांग काफी रहती है। इसलिए किसान भाइयों को इसकी खेती करते समय चने की उन उन्नत किस्मों का चुनाव करना चाहिए जो मोटा दाना देती हो। इसी के साथ ही इसकी खेती में कुछ सावधानियां रखी जाएं तो इसका बंपर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
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मोटा दाना देने वाली चने की उन्नत किस्म- जीएनजी- 1958
यह चने की मोटा दाना देने वाली उन्नत किस्म है जिसे मरूधर नाम से भी जाना जाता है। इसके 100 दानों का वजन 26 ग्राम होता है। यह किस्म श्रीगंगानगर अनुसंधान केंद्र के दलहन वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई है। इसका दाना अन्य किस्मों की अपेक्षा सबसे बड़ा होता है। यह किस्म राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब सहित अन्य राज्यों के लिए उपयुक्त पाई गई है।
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चने की फसल में जीएनजी- 1958 किस्म की प्रमुख विशेषताएं
- इस किस्म के चने के पौधे की लंबाई अन्य चने के पौधों से अधिक होती है। इसके पत्ते लंबे होते हैं।
- चने की इस किस्म के लिए सिर्फ एक सिंचाई की आवश्यकता होती है जिससे पानी की बचत होती है।
- रेतीली भूमि में यह किस्म में दो सिंचाई में पक कर तैयार हो जाती है।
- देशी चनों में साम्रट और मरूधर का आकार बड़ा होता है। सम्राट चने के 100 दानों को वनज 24 ग्राम होता है। वहीं मरूधर के 100 चनों को वजन 26 ग्राम होता है।
- इस किस्म से एक सिंचाई या मावठ में इसकी अच्छी पैदावार हो जाती है।
- इस किस्म में कीटों का प्रकोप कम होता है। जिससे उत्पादन लागत में कमी आती है।
- इस किस्म का दाना भूरा किस्म का होता है। जो 120 से 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। प्रति हेक्टेयर इससे 18 से 24 क्विंटल की उपज प्राप्त होती है।
प्राप्ति स्थान
इस किस्म को आप श्री गंगानगर आनुसंधान केंद्र से प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए संपर्क सूत्र - 0154-2440619 है।
आईसीएआर द्वारा विकसित चने की दो नई उन्नत किस्में / चने की उन्नत किस्में
सरकारी अनुसंधान संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर ने चने की दो उन्नत किस्में विकसित की हैं। ये उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित छह राज्यों में खेती के लिए उपयुक्त बताई जा रही हैं। आईसीएआर और कर्नाटक के रायचूर स्थित कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय ने इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रापिक्स के साथ मिल कर जिनोम-हस्तक्षेप के माध्यम से पूसा चिकपी 10216 और सुपर एन्नीगेरी 1 किस्म के चने के बीज चने के बीज विकसित किए हैं। चने की इन किस्मों से आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को किसानों को फायदा होगा। आईसीएआर के एक अधिकारी के अनुसार इन दो किस्मों की जानकारी मीडिया को दी गई हैं उसके अनुसार इन किस्मों की विशेषताएं इस प्रकार से हैं।
पूसा चिकपी 10216 की विशेषताएं
- पूसा चिकपी 10216 सूखे क्षेत्रों में भी अच्छी उपज दे सकती है।
- इसकी औसत पैदावार 1,447 किलो प्रति हेक्टेयर है।
- देश के मध्य के इलाकों नमी की कम उपलब्धता की स्थिति में यह पूसा 372 से करीब 11.9 फीसदी अधिक पैदावार देती है।
- यह किस्म 110 दिन में तैयार हो जाती है और इसके 100 बीजों का वजन लगभग 22.2 ग्राम होता है।
- यह किस्म फुसैरियम विल्ट और स्टंट रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधी है।
- यह किस्म मध्य प्रदेश, महाराट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए अच्छा उपयुक्त है।
सुपर एन्नीगेरी 1 की विशेषताएं
- सुपर एन्नीगेरी-1 किस्म 95-110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है।
- इस किस्म की औसत उपज 1,898 किलो प्रति हेक्टेयर है।
- यह आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात के लिए उपयुक्त पाई गई है।
प्राप्ति स्थान
सरकारी अनुसंधान संस्था
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर)
कार्यालय- कृषि भवन, डॉ. राजेंद्र प्रसाद रोड, नई दिल्ली- 110001
चने की अन्य उन्नत किस्में
चने की अन्य उन्नत किस्मों में पूसा-256, केडब्लूआर-108, डीसीपी 92-3, केडीजी-1168, जेपी-14, जीएनजी-1581, पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए गुजरात चना-4, मैदानी क्षेत्रों के लिए के-850, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए आधार (आरएसजी-936), डब्लूसीजी-1, डब्लूसीजी-2 और बुन्देलखंड के लिए संस्तुत प्रजातियों राधे व जे.जी-16 और काबुली चना की पूरे उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुत प्रजाति एचके-94-134 पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए पूसा-1003, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए चमत्कार (वीजी-1053) और बुन्देलखण्ड के लिए संस्तुत जीएनजी-1985, उज्जवल व शुभ्रा प्रजातियों की बुवाई की जा सकती है।
चने की खेती ( gram cultivation ) में ध्यान रखने वाली बातें / चने की उन्नत खेती
- चने की खेती के लिए जल निकास वाली उपजाऊ भूमि का चयन करना चाहिए।
- इसकी खेती हल्की व भारी दोनों प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। मध्यम व भारी मिट्टी के खेतों में गर्मी में एक-दो जुताई करना अच्छा रहता है।
- मानसून के अंत में व बुवाई से पहले अधिक गहरी जुताई नहीं करनी चाहिए।
- मिट्टी की जांच के हिसाब से ही उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए।
- मिट्टी की उर्वरा शक्ति के लिए असिंचित क्षेत्रों में 10 किलो नाइट्रोजन और 25 किलो फास्फोरस और सिंचित क्षेत्र में बुवाई से पहले 20 किलो नाइट्रोजन और 40 फास्फोरस प्रति हेक्टेयर 12-15 सेमी की गहराई पर आखिरी जुताई के समय डालना चाहिए।
- दीमक के प्रकोप से बचाव के लिए क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मैलाथियान 4 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से आखिरी जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए।
- जड़ गलन व उकटा रोग की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 0.75 ग्राम और थाइरम एक ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित करना चाहिए।
- जहां पर दीमक का प्रकोप हो वहां 100 किलो बीज में 800 मि.ली. लीटर क्लोरोपायरिफोस 20 ई.सी. मिलाकर बीज को उपचारित करना चाहिए। बीजों का राइजोबिया कल्चर और पीएसबी कल्चर से उपचार करने के बाद ही बोना चाहिए।
- जिन खेतों में विल्ट का प्रकोप अधिक होता हैं वहां गहरी व देरी से बुवाई करना लाभप्रद रहता हैं। धान/ज्वार उगाए जाने वाले क्षेत्रों में दिसंबर तक चने की बुवाई कर सकते हैं।
- पहली सिंचाई आवश्यकता अनुसार बुवाई के 45-60 दिन बाद फूल आने से पहले और दूसरी फलियों में दाना बनते समय की जानी चाहिए। यदि जाड़े की वर्षा हो जाए तो दूसरी सिंचाई नहीं करें। फूल आते समय कभी सिंचाई नहीं करनी चाहिए।
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