चने में फफूंद रोग : चने की फसल को फफूंदी रोग से बचाने के उपाय

Share Product प्रकाशित - 31 Dec 2022 ट्रैक्टर जंक्शन द्वारा

चने में फफूंद रोग : चने की फसल को फफूंदी रोग से बचाने के उपाय

जानें, चने की फसल में रोग से बचाव के आसान उपाय

फसलों में कीट व रोगों का प्रकोप सभी मौसमों में देखने को मिलता है। लेकिन सर्दियों के मौसम में तापमान कम होने के कारण फसलों में कीट व रोग लगने की संभावना ज्यादा रहती है। यदि समय पर फसल में लगने वाले इन कीटों व रोगों पर रोकथाम का उपाय नहीं किया जाता तो फसल के उत्पादन में कमी आ जाती है। इतना ही नहीं कभी-कभी इन कीटों व रोगों की वजह से किसानों की पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो जाती है। इसलिए समय रहते इन कीटों व रोगों का नियंत्रण करना बहुत ही आवश्यक होता है। इसी कड़ी में आज हम चने की फसल पर फफूंद रोग लगने के कारण, बचाव के तरीके व चने की फसल में लगने वाले अन्य रोगों की बात करेंगे। इस समय देश में रबी का सीजन चल रहा है इसलिए देश के कई राज्यों में चने की फसल की बुवाई हुई है। रबी फसलों में गेहूं के बाद चना सबसे महत्वपूर्ण फसल है। चने के बाजार में भाव भी अच्छे मिलने के कारण किसान इसकी खेती करके अच्छा मुनाफा कमाते हैं। किसान भाईयों आज हम ट्रैक्टर जंक्शन की इस पोस्ट के माध्यम से चने की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट व रोग तथा उनके रोकथाम की जानकारी आपके साथ साझा करेंगे।

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चने की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोग

चने की फसल में फंफूदी जनित रोग जैसे चांदनी ( एस्कोकाइटा ब्लाइट ), धूसर फफूंद ( बोट्राइटिस ग्रेमोल्ड ), हरदा रोग, स्टेमफिलियम ब्लाईट आदि लगते हैं। साथ ही अन्य रोग जैसे फली छेदक,कटवा सुंडी और झुलसा रोग भी चने की फसल को प्रभावित करते हैं। किसान समय पर इन कीटों एवं रोगों के नियंत्रण के लिए कदम उठाकर अपनी फसल को इनके प्रभाव से बचा सकते हैं।

चने की फसल में लगने वाला फंफूदी जनित रोग चांदनी (एस्कोकाइटा ब्लाइट)

चने की फसल में एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा रोग एस्कोकाइटा रेबि नामक फफूंद के कारण फैलता है। सर्दियों में अधिक आर्द्रता और कम तापमान होने की स्थिति में यह रोग फसल को नुकसान पहुंचाता है। चने के पौधे के निचले हिस्से पर गेरूई रंग के भूरे कत्थई रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जिससे संक्रमित पौधा मुरझाकर धीरे-धीरे सूख जाता है। पौधे के धब्बे वाले भाग पर फंफूद देखे जा सकते हैं। इस रोग से प्रभावित चने के पौधे की पत्तियों, फूलों और फलियों पर हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं।

फंफूदी जनित रोग चांदनी (एस्कोकाइटा ब्लाइट) की रोकथाम के उपाय

चने की फसल में लगने वाले रोग चांदनी को केप्टान या मेंकोजेब या क्लोरोवेलोनिल 2 से 3 ग्राम की दर से प्रति लीटर पानी के साथ 2 से 3 बार छिड़काव करने से इस रोग को रोका जा सकता है।

धूसर फफूंद रोग (बोट्राइटिस ग्रेमोल्ड)

यह रोग चने की फसल में वोट्राइटिस साइनेरिया नामक फंफूद के कारण होता है। यह रोग आमतौर पर पौधों में फूल आने और फसल के पूरी तरह से विकसित होने पर फैलता है। वायुमंडल और खेत में सर्दियों के मौसम में अधिक आर्द्रता होने पर पौधों पर भूरे या काले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। जिसके कारण फूल झड़ जाते हैं और संक्रमित पौधों पर फलियां नहीं बनती है। पौधे की शाखाओं एवं तनों पर जहां फंफूद संक्रमण रोग से भूरे या काले धब्बे पड़ जाते हैं, उस स्थान पर पौधा गलने या सड़ने लगता है। पौधे के सड़ने के कारण टहनियां टूट कर गिरने लग जाती हैं और संक्रमित फलियों पर नीले धब्बे पड़ने लगते हैं। इस रोग के कारण फलियों में दाने नहीं बनते हैं, और बनते भी है तो सिकुड़े हुए भी होते हैं।

धूसर फफूंद रोग (बोट्राइटिस ग्रेमोल्ड) के रोकथाम के उपाय

धूसर फफूंद रोग के लक्षण दिखाई देते ही तुरंत केप्टान या काबेंडाजिम या मेंकोजेब या क्लोरोथेलोनिल नामक दवाई का 2 से 3 बार एक सप्ताह के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए ताकि इस रोग से फसल को होने वाले नुकसान के प्रकोप से बचाया जा सके।

हरदा रोग

चने की फसल में यह रोग यूरोमाईसीज साइसरीज (एरोटीनी) नामक फंफूद के कारण होता है। पौधों में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होने, मिट्टी में नमी बहुत बढ़ जाने के कारण और सर्दियों में वायुमंडलीय तापमान बहुत गिर जाने के कारण इस रोग का असर सार्वधिक होता है। पौधों की पत्तियों, तना, टहनियों और फलियों में गोल आकार का प्यालिनुमा सफेद भरे रंग का फफोले बनने लगता हैं। बाद में तना के फफोले काले हो जाते हैं एवं पौधे सूखने लग जाते हैं। इस रोग के कारण 80 प्रतिशत तक फसल को नुकसान हो सकता है।

फली छेदक रोग

चने की फसल में लगने वाला ये प्रमुख रोग हैं। इस रोग में हरे रंग की लटें होती हैं, जो 1.25 इंच तक लंबी होती है, जो बाद में भूरे रंग की हो जाती है। शुरुआत में इस रोग के कीट चने की पत्तियों को खाती हैं। इसके बाद चने की फसल में फली लगने पर उनमें छेद कर दाने को खोखला कर देती हैं। इससे फसल में दाने का विकास सही से नहीं हो पाता और फसल खराब होने लगती है।

फली छेदक रोग लगने पर रोकथाम के उपाय

  • इस रोग के जैविक नियंत्रण हेतु जनवरी-फरवरी महीने में 5 से 6 फेरोमेन ट्रेप प्रति हैक्टेयर में लगाना चाहिए। एक या अधिक फली छेदक की तितलियां (दो से तीन दिन लगातार) आने पर 5 से 8 दिन के बीच पहला छिड़काव करें।
  • चने में फली छेदक रोग लगने पर इसके कीड़े के नियंत्रण हेतु लगभग 50 प्रतिशत फूल आने पर एनपीवी 250 एलई एक मिलीलीटर दवा प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
  • दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद बीटी 750 मिली लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से करना चाहिए।
  • तीसरा छिड़काव आवश्यक हो तो एनपीवी का उपयोग करना चाहिए।
  • जैविक नियंत्रण हेतु करीब 50 प्रतिशत फूल आने पर एजेडिरेक्टिन (नीम का तेल) 700 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
  • रोग के रासायनिक नियंत्रण हेतु फसल में फूल आने से पहले तथा फलियां लगने के बाद मैलाथियॉन 5 प्रतिशत चूर्ण का 20-20 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें। इस कीट का प्रकोप दिखाई देते ही एसीफेट 75 एस.पी. 500 ग्राम दवा का आवश्यकतानुसार पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें या इंडोक्सीकार्ब 14.5 एस.सी. 1 मिलीलीटर प्रति लीटर या ईमामेक्टिन बेन्जोएट 5 एस.जी. 0.5 ग्राम प्रति लीटर में घोल बनाकर फसल में छिड़काव करें।

कटवा सुंडी रोग

कटवा सुंडी रोग के कीट फसल में उगते पौधों के तनों या शाखाओं को काटकर नुकसान पहुंचाते है। इन कीटों की रोकथाम के लिए 0.4 प्रतिशत फैनबालरेट पाउडर 10 किलोग्राम की दर से छिड़काव करें। हैलियोथिस, पत्तों, फुलों, फलियों को खा जाने वाली सुंडी है। इसकी रोकथाम के लिए 400 मिलीलीटर ऐंडोसल्फान 37 ई सी को 100 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें तथा 151 दिन बाद फिर से छिड़काव करें।

झुलसा रोग

पौधे की निचली पत्तियों का पीला पड़कर झड़ऩा व फलियों का कम बनना व छिदा या विरल होना इस रोग के विशेष लक्षण हैं। फसल की शुरुआत में पत्तियों पर जलसंतृप्त बैंगनी रंग के धब्बे बनते हैं, जो बाद में पौधे के बड़े होने पर भूरे रंग के हो जाते हैं। इस रोग के कारण पौधे के फूल मर जाते हैं और पौधे में फलियां बहुत कम निकलती हैं।

झुलसा रोग के रोकथाम के उपाय

चने की फसल में झुलसा रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैन्कोजेब 75 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

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