प्रकाशित - 25 Jul 2022
इस समय खरीफ सीजन चल रहा है। खरीफ सीजन में मक्का, ज्वार, बाजरा, तिल, अरहर, गन्ना, धान आदि की खेती प्रमुखता से की जाती है। इनमें से कई फसलों की बुवाई हो चुकी है तथा कई फसलों की बुवाई करने का समय अभी शेष है। यहां हम आपको एक ऐसी फसल के बारे में बता रहे हैं जिसकी बुवाई 31 जुलाई तक की जा सकती है। जी, हां तिल की बुवाई मानसून आने के बाद दूसरे पखवाड़े में करना अच्छा रहता है। तिल की खेती एक ऐसी खेती है जो किसान की अच्छी कमाई करा सकती है। सामान्यत: तिल का तेल अन्य खाद्य तेलों के मुकाबले दोगुनी कीमत पर बिकता है। अगर सरसों का तेल 200 रुपए किलो बिकता है तो तिल का तेल 400 रुपए किलो बिकता है। आजकल एकदम शुद्ध तेल की डिमांड ज्यादा है। शुद्ध तेल की कीमत भी ज्यादा मिलती है। तिल का तेल निकालने के अलावा तिल को सीधा भी बेचा जा सकता है। तिल के कई औषधीय उपयोग हैं जिससे इसकी मांग सालभर बनी रहती है। ट्रैक्टर जंक्शन की इस पोस्ट में आपको तिल की खेती के बारे में जानकारी दी जा रही है, तो बने रहिए ट्रैक्टर जंक्शन के साथ।
देश में तिल की खेती कुछ चुनिंदो राज्यों में की जाती है और इस पैदावार से देश व विदेश की आपूर्ति की जाती है। तिल की सबसे अधिक खेती उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में होती है। इसके अलावा महाराष्ट्र, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, आंधप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडू, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में तिल की खेती होती है।
खरीफ सीजन में तिल की बुवाई जुलाई महीने के अंत तक की जा सकती है। एक हेक्टेयर खेत में 5 से 6 किलो बीज पर्याप्त रहते हैं। तिल की बुवाई से पहले खेत को तैयार करना चाहिए। इसके लिए खेत की दो-तीन जुताई कल्टीवेटर या हल से करने के बाद एक पाटा लगाना आवश्यक है, जिससे भूमि बुवाई के लिए तैयार हो जाती है। तिल के बीज की बुवाई 30-45 सेमी. कतार से कतार और 15 सेमी. पौध से पौध की दूरी व बीज की गहराई दो सेमी. रखी जाती है। बुवाई से पहले खेतों में नमी का ध्यान रखें। खेतों में नमी नहीं होने पर बुवाई नहीं करें। मिट्टी का पीएच मान 5-8 के बीच होना चाहिए। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज का आकार छोटा होने पर बीज को रेत, राख या सूखी हल्की बलुई मिट्टी में मिलाकर बुवाई करनी चाहिए।
तिल की खेती अनुपजाऊ भूमि में भी की जा सकती है। तिल की खेती अगर सही ढंग से की जाए तो कम समय में अधिक मुनाफा संभव है। तिल की खेती के लिए हल्की रेतीली, दोमट मिट्टी सही रहती है और अच्छा उत्पादन मिलता है। इसकी खेती अकेले या सहफसली के रूप अरहर, मक्का एवं ज्वार के साथ की जा सकती है। तिल की बुवाई कतारों में करनी चाहिए, जिससे खेत में खरपतवार और दूसरे कामों में आसानी रहे।
तिल की खेती करने से पूर्व उचित तापमान की जानकारी भी किसान को होनी चाहिए। तिल की खेती के लिए उच्च तापमान की जरुरत होती है। 25 से 35 डिग्री के तापमान में यह फसल तेजी से विकास करती है। अगर तापमान 40 डिग्री से अधिक चला जाता है तो गर्म हवाएं तिल में तेल की मात्रा को कम कर देती है। इसी प्रकार यदि तापमान 15 डिग्री से कम होता है तो भी तिल की फसल को नुकसान पहुंचता है।
तिल की फसल 90 दिन में पककर तैयार हो जाती है। तिल की कुछ प्रजातियां अच्छी प्रचलित हैं। तिल की उन्नतशील प्रजातियों में टा-78, शेखर, प्रगति, तरूण आदि की फलियां एकल व सन्मुखी तथा आरटी 351 प्रजाति की फलियां बहुफलीय व सन्मुखी होती है। इनकी पकने की अवधि करीब 90 दिन होती है। उपज क्षमता 2.0-2.50 क्विंटल प्रति बीघा है। यहां ध्यान रखना चाहिए कि थीरम तीन ग्राम व एक ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करके ही बीज को बोना चाहिए।
तिल की खेती में खाद और उर्वरक का प्रयोग विशेष सावधानी से करना चाहिए। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार पहले मिट्टी की जांच करानी चाहिए, उसी के अनुसार खाद और उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए। अगर किसान को फसल का अच्छा उत्पादन चाहिए तो बुवाई से पूर्व 250 किलोग्राम जिप्सम का प्रयोग करना चाहिए। बुवाई के समय 2.5 टन गोबर की खाद के साथ ऐजोटोबेक्टर व फास्फोरस विलय बैक्टीरिया (पीएसबी) पांच किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। तिल बुवाई से पूर्व 250 किलोग्राम नीम की खली का प्रयोग भी लाभदायक बताया गया है।
तिल की फसल को रोग व कीटों से बचाने के लिए समय-समय पर उपचार भी करना चाहिए। तिल की खेती में जीवाणु अंगमारी, तना और जड़ सड़न रोग का प्रकोप होने पर फसल को नुकसान पहुंचता है। जीवाणु अंगमारी रोग में पत्तियों पर जल कण जैसे छोटे बिखरे हुए धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर भूरे हो जाते हैं। यह बीमारी चार से छह पत्तियों की अवस्था में देखने को मिलती हैं। इस बीमारी का प्रकोप शुरू होने पर स्ट्रेप्टोसाक्लिन चार ग्राम को 150 लीटर पानी में घोलकर पत्तियों पर छिडकाव करना चाहिए, इससे फसल को सुरक्षा मिलती है। 15 दिन के अंतराल में दो बार छिड़काव करने की सलाह दी जाती है। तना और जड़ सड़न रोग का प्रकोप होने पर पौधे सूखने लगते हैं और तना ऊपर से नीचे की ओर सड़ने लगता है, इस रोग की रोकथाम के लिए बीजोपचार जरूरी है।
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