प्रकाशित - 28 May 2025
ट्रैक्टर जंक्शन द्वारा
उत्तराखंड के नैनीताल जिले के रहने वाले प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा ने जैविक खेती के क्षेत्र में ऐसा मुकाम हासिल किया है, जो न केवल राज्य बल्कि पूरे देश के किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन चुका है। उन्होंने परंपरागत रासायनिक खेती को त्यागकर पूरी तरह से जैविक पद्धति अपनाई और अपने नवाचारों से कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं। हाल ही में उन्होंने एक हल्दी के पौधे से 25.7 किलोग्राम हल्दी का उत्पादन कर “वर्ल्ड ग्रेटेस्ट रिकॉर्ड्स” में नाम दर्ज कराया है, जो जैविक खेती की असीम संभावनाओं का प्रतीक है। उनका संदेश है, "प्राकृतिक और जहर-मुक्त खेती को अपनाइए। इससे जमीन, शरीर और वातावरण, तीनों स्वस्थ रहेंगे।"
नरेंद्र सिंह मेहरा की कहानी यह बताती है कि अगर नीयत साफ हो, सोच वैज्ञानिक हो और दिल में समाज के लिए कुछ करने का जज्बा हो, तो एक किसान भी देश का नायक बन सकता है। उन्होंने जैविक खेती, देसी बीजों का संरक्षण और नवाचार के जरिए न केवल अपनी जमीन को उपजाऊ बनाया, बल्कि भारत की कृषि को नई दिशा भी दी है। आइए, जानते हैं जैविक खेती को नई दिशा देने वाले प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा की सफलता की कहानी।
एम.ए. और टूरिज्म स्टडीज में डिप्लोमा धारक नरेंद्र सिंह मेहरा की शिक्षा और वैज्ञानिक सोच उनकी खेती में साफ दिखाई देती है। वे खेती को सिर्फ आजीविका नहीं, बल्कि नवाचार, प्रकृति संरक्षण और समाज सेवा का माध्यम मानते हैं। उनकी 8 एकड़ जमीन पर बहुफसली और बहुस्तरीय खेती होती है, जिसमें गेहूं, धान, गन्ना, प्याज, लहसुन, भिंडी, सरसों जैसे फसलें और आम, अमरूद, पपीता जैसे फल शामिल हैं। वे सहफसली खेती (Intercropping) और प्राकृतिक कीट नियंत्रण विधियों को अपनाकर न केवल भूमि की उर्वरता बनाए रखते हैं, बल्कि उत्पादन लागत भी कम करते हैं। इसका सीधा लाभ उन्हें आर्थिक रूप से भी मिलता है और भूमि की सेहत भी बनी रहती है।
नरेंद्र सिंह मेहरा भी शुरुआत में अन्य किसानों की तरह रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग करते थे। लेकिन समय के साथ उन्होंने महसूस किया कि यह तरीका मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर रहा है और उत्पादन की लागत भी लगातार बढ़ रही है। इसके साथ ही, इन रसायनों के दुष्प्रभाव मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी पड़ रहे थे। इन समस्याओं को देखते हुए उन्होंने जीवामृत, घनजीवामृत, पंचगव्य, वर्मी कम्पोस्ट और देसी गाय के गोबर व गौमूत्र जैसे जैविक साधनों का उपयोग शुरू किया। इससे न केवल उनकी मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार हुआ, बल्कि उत्पादन भी बेहतर हुआ। उनका मानना है कि खेती केवल अनाज उगाने का माध्यम नहीं, यह धरती मां को पोषण देने का एक तरीका है।
नरेंद्र सिंह मेहरा यह भी महसूस करते हैं कि विदेशी और हाईब्रिड बीजों ने किसानों को बीज कंपनियों पर निर्भर बना दिया है। इस चुनौती से निपटने के लिए उन्होंने देसी बीजों का संकलन और संरक्षण शुरू किया। वर्षों की मेहनत से उन्होंने पारंपरिक बीजों को इकट्ठा किया, उन्हें अपने खेतों में प्रयोग किया और सफल परिणाम प्राप्त किए। वह इन बीजों को अन्य किसानों में भी वितरित करते हैं, जिससे खेती में आत्मनिर्भरता और स्थायित्व को बढ़ावा मिल रहा है। देसी बीज, उनकी राय में, मौसम की मार को बेहतर ढंग से झेल सकते हैं और बिना रासायनिक सहारे के भी अच्छा उत्पादन दे सकते हैं।
नरेंद्र सिंह मेहरा की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियों में एक है ‘नरेंद्र 09’ नामक गेहूं की किस्म का विकास करना। यह किस्म प्राकृतिक उत्परिवर्तन (Natural Mutation) से उनके खेत में उत्पन्न हुई थी। उन्होंने उस खास पौधे के बीज को सुरक्षित रखा और कई वर्षों तक चयन और परीक्षण करते रहे। अंततः उन्होंने एक अत्यंत उत्पादक किस्म विकसित की।
नरेंद्र सिंह मेहरा ने जैविक खेती में एक और शानदार कीर्तिमान तब स्थापित किया, जब उन्होंने एक हल्दी के पौधे से 25.7 किलोग्राम उपज प्राप्त की। यह किस्म ‘अंबा हल्दी’ या ‘आमा हल्दी’ के नाम से जानी जाती है, जो हल्दी की एक जंगली प्रजाति है। दो वर्षों तक जैविक खाद और देखभाल के बाद जब खुदाई की गई, तो एक ही पौधे से इतनी अधिक मात्रा में हल्दी निकलना आश्चर्यजनक था। इस रिकॉर्ड ने जैविक खेती की क्षमताओं को विश्व स्तर पर प्रस्तुत किया।
नरेंद्र सिंह मेहरा आज केवल किसान नहीं, बल्कि किसानों के मार्गदर्शक हैं। वे ग्लोबल फार्मर बिजनेस नेटवर्क (GFBN) जैसे राष्ट्रीय मंच से जुड़े हैं और अपने खेत को मॉडल फार्म के रूप में उपयोग कर अन्य किसानों को प्रशिक्षित करते हैं। वे समय-समय पर फार्म विजिट, कार्यशालाएं और गोष्ठियों का आयोजन कर प्राकृतिक खेती की तकनीकें साझा करते हैं। उनकी प्रेरणा से क्षेत्र के कई किसान जैविक खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं और कम लागत में बेहतर उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं।
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