Published - 04 Aug 2020 by Tractor Junction
मनुष्य की तरह ही पशुओं में कई बीमारियां होती है। बारिश के मौसम में तो पशुओं की देखभाल ज्यादा करने की जरूरत होती है क्योंकि इस मौसम में पशुओं में बीमारियों का खतरा अधिक रहता है। दुधारू पशुओं में बीमारी होने पर इसका असर दूध की उत्पादकता पर पड़ता है। बीमारी के कारण पशु दूध देना कम या बिलकुल बंद कर देता है जिससे पशुपालक को हानि होती है।
पशुओं को बीमारियों से बचाने के लिए समय-समय पर पशुओं का टीकाकरण किया जाता है। इसके लिए पिछले वर्ष से सरकार की ओर से राष्ट्रीय पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम के तहत एनएडीसीपी पशु टैगिंग एवं टीकाकरण प्रोग्राम की शुरुआत की गई है। इस योजना के तहत दुधारू पशु गाय, भैंस सहित बकरी भेंड़, सूकर आदि पशुओं को टीकाकरण किया जाता है। इस समय मध्यप्रदेश में पशुओं को खुरपका-मुंहपका बीमारी तथा ब्रुसिल्लोसिस आदि बीमारियों से बचाव के लिए यह टीकाकरण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। वहीं कई राज्यों में भी पशुओं के टीकाकरण एवं टैगिंग का कार्य प्रारंभ भी हो चुका है ताकि पशुओं को संक्रामक रोग जैसे खुरपका-मुंहपका, गलघोटू, लगड़ी आदि रोगों से बचाया जा सके।
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मध्यप्रदेश के पशुपालन मंत्री श्री प्रेम सिंह पटेल ने मीडिया को बताया कि केन्द्र शासन द्वारा गौ, भैंस, बकरी, भेंड़, सूकर के टीकाकरण के लिए नेशनल एनीमल डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम (एनएडीसीपी) प्रारंभ किया गया है। प्रथम चरण में गाय-भैंस वंश का टीकाकरण किया जाएगा। टैगिंग पशुओं की जानकारी आईएनएपीएच सॉफ्टवेयर में दर्ज की जाएगी। कार्यक्रम 6 माह के अंतराल में वर्ष में दो बार संचालित होगा। गौ - भैंस वंशीय पशुओं को टैग के साथ लगाया जाएगा।
एफएमडी टीका मध्यप्रदेश के पशुपालन मंत्री प्रेम सिंह पटेल ने बताया कि एक अगस्त से पूरे प्रदेश में गौ-भैंस वंशीय पशुओं का टीकाकरण किया जाएगा। एनएडीसीपी योजना में प्रदेश के 290 लाख गौ-भैस वंशीय पशुओं को टैग लगाए जाने हैं। भारत सरकार को 200 लाख टैग के लिए मांग पत्र भेजे गए थे। इसके प्रत्युत्तर में प्रदेश को 200 लाख टैग उपलब्ध करा दिए गए हैं। साथ ही इन पशुओं के लिए 262 लाख एमएफडी टीका द्रव्य भी प्राप्त हो गया है।
टीकाकरण के प्रथम चरण के लिए केन्द्र शासन द्वारा 48 करोड़ 82 लाख रुपए की राशि प्राप्त हो गई है। इसमें से 12 करोड़ 62 लाख 83 हजार शीत श्रंखला व्यवस्था, 11 करोड़ 12 लाख 39 हजार टीकाकरण सामग्री और 25 करोड़ 7 लाख 59 हजार गौ सेवक, मैत्री कार्यकर्ता आदि के मानदेय, ईयर टैग और स्वास्थ्य प्रमाण - पत्र भुगतान पर व्यय किए जाएंगे। बता दें कि भारत सरकार की पशु संजीवनी योजना में प्रदेश को पूर्व में 90 लाख टैग प्राप्त हुए थे जो मात्र 30 प्रतिशत प्रजनन योग्य पशुओं के लिये पर्याप्त थे। इनमें से 70 लाख 49 हजार टैग लगाए जा चुके हैं।
खुरपका, मुंहपका रोग सूक्ष्म विषाणु (वायरस) से पैदा होने वाली बीमारी है। इसे विभिन्न स्थानों पर विभिन्न स्थानीय नामों जैसे कि खरेडू, मुहंपका-खुर पका, चपका, खुरपा आदि नामों से जानाजाता है। यह बहुत तेजी फैलने वाला छूतदार रोग है जोकि गाय, भैंस, भेेड़, ब्क्रिम ऊंट, सुअर आदि पशुओ में होता है। विदेशी व संकर नस्ल रोग की गायों में यह बीमारी अधिक गंभीर रूप से पाई जाती है। यह बीमारी हमारे देश में हर स्थान में होती है। इस रोग से ग्रस्त पशु ठीक होकर अत्यन्त कमजोर हो जाते हैं। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत कम हो जाता है तथा बैल काफी समय तक काम करने योग्य नहीं रहते है। शरीर पर बालों का कवर खुरदरा था खुर हरूप हो जाते हैं।
रोग का कारण : मुंहपका-खुरपका रोग एक अत्यन्त सुक्ष्ण विषाणु जिसके अनेक प्रकार तथा उप-प्रकार है, से होता है। हमारे देश में यह रोग मुख्यत: ओ,ए,सी तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है। नम-वातावरण, पशु की आंतरिक कमजोरी, पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्र में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक होती है।
रोग के लक्षण : रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डिग्री फारेनहायट तक बुखार हो जाता है। वह खाना-पीना व जुगाली करना बन्द कर देता है। दूध का उत्पादन गिर जाता है। मुंह से लार बहने लगती है तथा मुंह हिलाने पर चप-चप की आवाज आती हैं इसी कारण इसे चपका रोग भी कहते है तेज बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर, गालों, जीभ, होंठ तालू व मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच तथा कभी-कभी थनों व आयन पर छाले पड़ जाते हैं। ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं जिससे पशु को बहुत दर्द होने लगता है।
मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु खाना-पीना बंद कर देते हैं जिससे वह बहुत कमजोर हो जाता है। खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा चलने लगता है। गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है। नवजात बच्छे / बच्छियां बिना किसी लक्षण दिखाए मर जाते है। लापरवाही होने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं तथा कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं। हालांकि व्यस्क पशु में मृत्यु दर कम (लगभग 10 प्रतिशत) है लेकिन इस रोग से पशु पालक को आर्थिक हानि बहुत ज्यादा उठानी पड़ती है। दूध देने वाले पशुओं जैसे गाय तथा भैंस में दूध देनी की क्षमता घट जाती है तथा एक समय यह स्थिति आती है की 100 प्रतिशत तक दूध नहीं देती है। यह स्थिति 6 माह तक बनी रह सकती है।
उपचार : इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है लेकिन बीमारी की गंभीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है। रोगी पशु में सेकैन्डरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं। मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटाश के पानी से धोते हैं। मुंह में बोरो-गिलिसरीन तथा खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है।
जीवाणु जनित इस रोग में गोपशुओं तथा भैंसों में गर्भवस्था के अन्तिम त्रैमास में गर्भपात हो जाता है। यह रोग पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकता है। मनुष्यों में यह उतार-चढ़ाव वाला बुखार (अज्युलेण्ट फीवर) नामक बीमारी पैदा करता है। पशुओं में गर्भपात से पहले योनि से अपारदर्शी पदार्थ निकलता है तथा गर्भपात के बाद पशु की जेर रुक जाती है। इसके अतिरिक्त यह जोड़ों में आर्थ्रायटिस (जोड़ों की सूजन) पैदा के सकता है। ब्रुसिल्लोसिस बीमारी से पीडि़त पशु के पुरे जीवनचक्र के दौरान 30 प्रतिशत तक दूध उत्पादन घट जाता है। ब्रुसिल्लोसिस बीमारी से पशुओं में बांझपन भी हो सकती है। मवेशियों के साथ रहने वाले व्यक्ति भी इस बीमारी से प्रभावित हो सकते हैं। इसका असर मवेशी के दूध पर असर पड़ता है तथा दूध दूषित हो जाता है।
उपचार व रोकथाम : अब तक इस रोग का कोई प्रभाव करी इलाज नहीं हैं। यदि क्षेत्र में इस रोग के 5 प्रतिशत से अधिक पोजिटिव केस हो तो रोग की रोकथाम के लिए बच्छियों में 3-6 माह की आयु में ब्रुसेल्ला-अबोर्टस स्ट्रेन-19 के टीके लगाए जा सकते हैं। पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्धति अपना कर भी इस रोग से बचा जा सकता है।
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