Published - 04 Jul 2020 by Tractor Junction
कई बार महंगे बीजों की खरीद के बावजूद किसान की फसल में कई रोग लग जाते हैं जिससे उत्पादन में कमी आ जाती है। बात करें धान की तो इस फसल की बुवाई से लेकर कटाई के बीच कई रोग लगते हैं जो इसके उत्पादन को कम कर देते हैं। इससे किसान को काफी मेहनत करने के बाद भी भरपूर लाभ नहीं मिल पाता। जैसा की हम जानते हैं इस बार अच्छे मानसून का अनुमान होने से देश भर में धान की बुवाई का कार्य जोरों पर है। यदि धान की बुवाई ( Paddy Sowing ) करते समय ही कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो इसमें लगने वाले रोगों से सुरक्षा कर संभावित हानि से बचा जा सकता है। इसके अलावा बुवाई के बाद से लेकर कटाई तक भी इस फसल का ध्यान रखना बेहद जरूरी है क्योंकि इसमें इस दौरान भी कई रोगों का प्रकोप बना रहता है जो इसके उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। आइए जानतें हैं धान की स्वस्थ खेती के तरीके जिनसे उत्पादन में वृद्धि कर अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है।
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धान की बुवाई से पूर्व इसके बीजों का शोधन किया जाना बेहद जरूरी है। धान की बुवाई या रोपाई से कटाई के बीच कई रोग लगते हैं। यदि बुवाई से पूर्व ही बीजों का शोधन कर इसे बोया जाए तो इससे रोगों की रोकथाम शुरुआत में ही हो जाती है। बीजों का शोधन करने से इसमें रोग लगने की संभावना बहुत ही कम हो जाती है और उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है।
धान के बीजों की बुवाई या रोपाई से पूर्व पुष्ट बीजों का चयन करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए सबसे पहले बीज को नमक के घोल में डालें। दस लीटर पानी में 1.7 किलो सामान्य नमक डालकर घोल बनाएं और इस घोल में बीज डालकर हिलाएं, भारी एवं स्वस्थ बीज नीचे बैठ जाएंगे और हल्के बीज ऊपर तैरने लगेंगे। हल्के बीज निकालकर अलग कर दें तथा नीचे बैठे भारी बीजों को निकालकर साफ पानी में दो-तीन बार धोएं व छाया में सुखाए।
धान को कवकजनित रोग से सुरक्षा के लिए इसके बीजों को 2.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। बीज उपचार के लिए बीज उपचार यंत्र (सीड ट्रीटिंग ड्रम) में बीज आधा भर लें तथा बीज की मात्रा के अनुसार आवश्यक कवकनाशी डालकर घुमा कर 5 मिनट बाद बीज की बुआई करें। यदि आप प्रमाणिक किस्म के बीजों का उपयोग कर रहे हैं तो इसे नमक के घोल में डुबोने की आवश्यकता नहीं है।
धान की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग लगते हैं इसमें से सडऩ तथा झुलसा रोग प्रमुख रोगों में से एक है। इस रोग से कभी-कभी 50 प्रतिशत तक फसल का नुकसान हो जाता है। इस रोग से बचाव के लिए धान की नर्सरी तैयार करने से पहले ही बीजोपचार करें। इससे बीजों का अंकुरण अच्छा होता है एवं फसलें फफूंदी जनित रोगों से मुक्त रहती है। इस रोग से धान को बचाने के लिए 04 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा प्रति किलोग्राम बीज की दर से शुष्क बीजोपचार कर बुवाई करें।
भूमि शोधन के लिए 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ट्राईकोडर्मा को लगभग 75 किलोग्राम गोबर कि सड़ी खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 7-8 दिन के लिए छायादार स्थान पर रखें एवं बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला दें।
बैक्टरिया ब्लाईट रोग से प्रभावित क्षेत्र में 25 किलोग्राम बीज के लिए 04 किलोग्राम स्ट्रेप्टोसाईक्लिन या 40 ग्राम प्लाटोमाइसिन पानी में मिलाकर रात भर बीज को भिगोकर, दूसरे दिन छाया में सुखाकर नर्सरी में डालना चाहिए। इसके अतिरिक्त 25 किलोग्राम बीज को रात भर पानी में भिगोकर बाद में दूसरे दिन अतिरिक्त पानी निकालकर 75 ग्राम थीरम या 50 ग्राम कार्बेन्डाजिम को 8- 10 लीटर पानी में घोलकर बीज में मिला दें फिर छाया में अंकुरित कर नर्सरी में डालें। नर्सरी लगने के 10 दिन के भीतर ट्राईकोडर्मा का एक छिडक़ाव कर दें। यदि नर्सरी में कीटों का प्रभाव दिखाई दे तो 1.25 ली. क्यनालफास 25 ईसी या 1.5 ली. क्लोरपायरिफास 20 ईसी प्रति हेक्टेयर में छिडक़ाव करें।
भूरी चित्ती रोग : धान की खेती में भूरी चित्ती का रोग ज्यादातर दक्षिण-पूर्वी राज्यों में देखने को मिलता हैं। धान के पौधों पर इस रोग का प्रभाव उसके कोमल भागों पर होता है। इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों पर गोल, छोटे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। धीरे-धीरे ये धब्बे आपस में मिलकर बड़ा आकार ले लेते हैं। इससे पौधे की पत्तियां सूखाने लगती है और पौधा विकास करना बंद कर देता है। इस रोग के लगने से पौधे में बालियां काफी कम मात्रा में आती है।
उपाय - इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में धान के पौधों को रोपाई से पहले थिरम या कार्बनडाईजिम की उचित मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए। वहीं खड़ी फसल प्रभाव दिखाई देने पर 10 से 12 दिन के अंतराल में मैंकोजेब का छिडक़ाव पौधे पर करना चाहिए। इसके अलावा इणडोफिल एम 45 की ढाई किलो मात्रा को एक हजार लीटर पानी में मिलाकर छिडक़ाव करने से भी लाभ मिलता है।
खैरा रोग : चावल की खेती में लगने वाला ये रोग भूमि में उर्वरक की कमी की वजह से देखने को मिलता है। इस रोग के लगने से शुरुआत में पौधे की निचली पत्तियों का रंग पीला दिखाई देने लगता है और पत्तियों पर कत्थई रंग के धब्बे बनना शुरू हो जाते हैं। इस रोग से पौधे की पत्तियां सूखकर गिरने लगती है। पौधों में ये रोग जस्ता की कमी की वजह से दिखाई देता है।
उपाय - इस रोग से रोकथाम के लिए खेत में जिंक सल्फेट का छिडक़ाव आखिरी जुताई के समय करना चाहिए या फिर रोग दिखाई देने पर लगभग 5 किलो जिंक सल्फेट का छिडक़ाव पौधों पर 10 दिन के अंतराल में दो बार करना चाहिए। इसके अलावा ढाई किलो बुझे हुए चूने को प्रति हेक्टेयर की दर से 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडक़ना चाहिए।
टुंग्रो रोग : धान के पौधों में लगने वाला ये रोग कीट की वजह से फैलता है। पौधों पर इस रोग का प्रभाव शुरुआती अवस्था में देखने को मिलता है। इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों का रंग संतरे की तरह पीला दिखाई देने लगता है और इस रोग के लगने से पौधों का आकार बौना दिखाई देने लगता है। रोगग्रस्त पौधे में बालियां भी देरी से बनती है जिनका आकार बहुत छोटा दिखाई देता है। इससे दाने बहुत कम और हल्की मात्रा में पड़ते हैं।
उपाय - इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में पौध रोपाई के समय इसके पौधों को क्लोरोपायरीफॉस की उचित मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए। यदि खड़ी फसल में रोग दिखाई दे तो मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी., कार्बेरिल 50 डब्ल्यू. पी. या फोस्फेमिडोन 85 डब्ल्यू. एस.सी. की उचित मात्रा का छिडक़ाव पौधों पर करना चाहिए।
पत्ती मरोडक रोग : पत्ती मरोडक रोग को पत्ती लपेटक के नाम से भी जानते हैं। धान के पौधों में पट्टी मरोडक रोग का प्रभाव पौधे की पत्तियों पर दिखाई देता है। इस रोग की सुंडी पौधे की पत्तियों को लपेटकर सुरंग बना लेती है और उसके अंदर रहकर पत्तियों का रस चूसती हैं। इससे पौधे की पत्तियों का रंग पीला दिखाई देने लगता हैं। रोग के अधिक बढऩे से पत्तियां जाली के रूप में दिखाई देने लगती हैं।
उपाय - इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे की समय से रोपाई करें और उसमें खरपतवार नहीं होने दें। इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर कार्बोफ्यूरान 3 जी या कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी की उचित मात्रा का छिडक़ाव करना चाहिए। इसके अलावा क्लोरपाइरीफास, क्यूनालफास, ट्राएजोफास या मोनोक्रोटोफास का छिडक़ाव भी रोग की रोकथाम के लिए अच्छा होता है। वहीं जैविक तरीके से रोग नियंत्रण करने के लिए रोगग्रस्त पत्तियों को तोडक़र उन्हें जला देना चाहिए।
झोंका रोग : धान की फसल में लगने वाला झोंका रोग फसल की रोपाई के लगभग 30 से 40 दिन बाद शुरू हो जाता हैं। इस रोग की मुख्य वजह मौसम में होने वाला परिवर्तन को माना जाता हैं। इस रोग की शुरुआत में पौधों के पर्णच्छद और पत्तियों मटमैले धब्बे बन जाते हैं। इससे पौधे बहुत कमजोर हो जाते है और टूटकर गिरने लगते हैं।
उपाय - इस रोग से धान की फसल को बचाने के लिए लिए शुरुआत में बीजों की रोपाई से पहले उन्हें थीरम या कार्बेन्डाजिम की दो से ढाई ग्राम मात्रा को प्रति किलो की दर से बीजों में मिलाकर उपचारित कर लेना चाहिए। यदि खड़ी फसल में रोग दिखाई दे तो कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू.पी. या एडीफेनफास 50 प्रतिशत ई.सी. की आधा लीटर मात्रा को 500 से 700 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडक़ाव करना चाहिए। इसके अलावा हेक्साकोनाजोल, मैंकोजेब या जिनेब की उचित मात्रा का पौधों पर छिडक़ाव करना भी रोग की रोकथाम के लिए उपयोगी होता है।
हिस्पा रोग : धान की फसल में लगने वाला ये एक कीट रोग हैं। इस रोग के बीटल (कीड़े) पौधे की पत्तियों के अर्द्ध चर्म को खा जाते है जिससे पौधे की पत्तियों पर सफेद रंग के धब्बे दिखाई देने लगते है इस रोग के बढऩे से पौधों को काफी ज्यादा नुक्सान पहुंचता हैं।
उपाय - इसकी रोकथाम के लिए धान की रोपाई समय पर करनी चाहिए। खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी या कार्बोफ्यूरान 3 जी की 18 से 20 किलो मात्रा को 500 से 700 लीटर पानी में मिलकर पौधों पर छिडकना चाहिए। इसके अलावा ट्राएजोफास, मोनोक्रोटोफास, क्लोरपाइरीफास या क्यूनालफास की उचित मात्रा का छिडक़ाव भी किसान भाई पौधों पर कर सकते हैं।
तना छेदक रोग : धान के पौधों में तना छेदक रोग का प्रभाव कीटों की वजह से फैलता हैं। इस कीट के रोग पौधे पर अपने लार्वा को जन्म देते हैं जो पौधे के तने में छेद कर उसे अंदर से खोखला कर देता हैं। इससे पौधे को पोषक तत्व मिलने बंद हो जाते हैं जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता है और तने के खोखले हो जाने की वजह से पौधे जल्द ही टूटकर गिरने लगते हैं।
उपाय - इस रोग की रोकथाम के लिए खेतों के चोरों तरफ फसल रोपाई के समय फूल वाले पौधों की रोपाई करनी चाहिए। यदि खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर पौधों पर क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. या क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी.की डेढ़ लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडक़ना चाहिए। इसके अलावा मोनोक्रोटोफास, कार्बोफ्यूरान या ट्रायजोफास की उचित मात्रा का छिडक़ाव भी फसल में लाभ पहुंचाता हैं।
फुदका रोग : धान का फुदका रोग फसल के तैयार होने के समय देखने को मिलता है। धान की फसल में तीन तरह के फुदका रोग पाए जाते हैं जिन्हें एक सामान रूप से उपचारित किया जाता है। जिन्हें कीट की अवस्था के आधार पर हरा, भूरा और सफेद पीठ वाला फुदका के नाम से जानते हैं। रोग की शुरुआती अवस्था में इसके कीटों का रंग हरा दिखाई देता हैं जो बाद में कीट के व्यस्क होने के साथ बदलता हैं। इस रोग के कीट पौधे की पत्तियों का रस चूसकर और उन्हें खाकर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे पौधे का विकास रूक जाता है।
उपाय - इस रोग से धान की फसल को बचाने के लिए शुरुआत में खेत की गहरी जुताई कर फसल को समय पर उगा देना चाहिए। यदि खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर फेरोमोन ट्रैप की 5 से 7 ट्रैप को प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाना चाहिए। इसके अलावा फसल पर रोग दिखाई देने पर इमिडाक्लोप्रिड, फिप्रोनिल या कार्बोफ्यूरान की उचित मात्रा का छिडक़ाव पौधों पर करना चाहिए।
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