पश्चिमी राजस्थान में पैदा होने वाली सब्जी कैर-सांगरी की बाजार मांग बढऩे लगी है। औषधीय गुणों से भरपूर इस सब्जी में रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने तत्व सम्मिलित होते हैं। इसका सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है। राजस्थान में कैर-सांगरी की सब्जी बनाकर खाई जाती है। बड़े-बड़े आयोजनों में इसे परोसा जाता है। इसकी कीमत की बात करें तो ताजी कैर-सांगरी की तुलना में इसके सूखने पर इसके अधिक दाम मिलते हैं। सूखने के बाद इसकी कीमत करीब 5 गुना तक बढ़ जाती है। सूखी अवस्था में होने से इसका उपयोग पूरे साल किया जा सकता है। बता दें कि कैर-सांगरी का पेड़ प्राय: सूखे क्षेत्रों में पाया जाता है। यह दक्षिण और मध्य एशिया, अफ्रीका और थार के मरुस्थल में मुख्य रूप से प्राकृतिक रूप में मिलता है।
कैर-सांगरी की खेती नहीं करनी पड़ती है, क्योंकि ये बहुत ही खास सब्जी है, जो प्राकृतिक रूप से उगती है। इसमें न कीटनाशक दवा की जरूरत होती है और न ही किसी प्रकार की खाद की। सांगरी खेजड़ी के पेड़ पर उगती है, जबकि कैर, झाड़ पर लगते हैं। ये स्वाभावित रूप से उगते हैं। जब गर्मी में तापमान 40 डिग्री से ऊपर हो जाता है तब सांगरी उगती है। ये गर्मी में फलीभूत होने वाली सब्जी है। गर्म जलवायु इसके लिए अच्छी रहती है।
सांगरी-कैर में विटामिन ए, कैल्शियम, आयरन व कार्बोहाइड्रेट होता है। यह एंटी ऑक्सीडेंट भी है। ये स्वाद के साथ ही शरीर की जो रोग प्रतिरोधकता भी बढ़ाती है। कैर के डंठल से चूर्ण भी बनता है जो कफ और खांसी में काम आता है। सूखे कैर फल के चूर्ण को नमक के साथ लेने पर पेट दर्द में आराम पहुंचाता है।
कैर या करीर या केरिया या कैरिया एक मध्यम या छोटे आकार का पेड़ होता है। यह पेड़ 5 मीटर से बड़ा नहीं पाया जाता है। इसमें दो बार मई और अक्टूबर में फल लगते हैं। इसके हरे फलों का प्रयोग सब्जी और आचार बनाने में किया जाता है। इसमें लाल रंग के फूल आते हैं इसके कच्चे फल की सब्जी बनती हैं जो राजस्थान में बहुत प्रचलित हैं। कैर के पके फलों को राजस्थान में स्थानीय भाषा में ढालु कहते हैं। ठंडी तासीर वाला कैर छोटे आकार का गोल फल होता है। कैर को बिना सुखाए अचार व सब्जी बनाकर प्रयोग में लिया जाता है। इसे सुखाकर औषधी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
खेजड़ी रेगिस्तान में पाया जाने वाला पेड़ है। यह पेड़ विभिन्न देशों में पाया जाता है जहां इसके अलग-अलग नाम हैं। अंग्रेजी में इसे प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है। खेजड़ी का पेड़ जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है।
कैर-सांगरी गांवों से निकलकर आज पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गई है। इसके पीछे का कारण इसका बेहतरीन स्वाद और इसके औषधीय गुण हैं। प्राकृतिक रूप से उगने वाले कैर-सांगरी को ई-कॉमर्स कंपनियों के माध्यम से लोग मंगवा रहे हैं। ऑनलाइन में इसके भाव सामान्य भाव से कई गुना अधिक हैं। इसके बावजूद लोग इसे मंगाकर बड़े ही चाव से खाते हैं। जैसा कि पश्चिमी राजस्थान में गर्मी में इसकी पैदावार होती है। ऐसे में इस क्षेत्र में जब सांगरी कच्ची होती है तो स्थानीय स्तर पर कीमत 100-120 रुपए प्रति किलो तक होती है। इसी भाव में कैर भी मिलते है। सूखने पर पैदावार वाले क्षेत्र में ही कैर-सांगरी की कीमत करीब 5 गुना तक बढ़ जाती है। जबकि दूसरे राज्यों में 1500-1800 रुपए प्रति किलो पर बिकते हैं। जबकि ऑनलाइन पर कैर-सांगरी की कीमत 2200-2500 रुपए प्रति किलो तक है।
राजस्थान में कैर-सांगरी गर्मियों के मौसम में आते हैं तब इसकी सब्जी और अचार बनाया जाता है। लेकिन कैर-सांगरी जब सूख जाते हैं तब इसके बाद बनने वाली सब्जी अधिक स्वादिष्ट होती है। इसे लोगों द्वारा बड़े चाव से खाया जाता है। ये सब्जी महंगी होने के बावजूद लोगों द्वारा पसंद की जाती है। सूखे कैर-सांगरी की सब्जी कभी भी बनाई जा सकती है। खासकर बड़े आयोजन में पंचकूटा की सब्जी में मुख्यत: कैर सांगरी ही होती है। यह विशेषकर राजस्थान में अधिक प्रचलन में है।
कैर-सांगरी की खेती को मिला बढ़ावा
राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ काफी तादाद में पाए जाते हैं। खेजड़ी के फल को सांगरी कहा जाता है। वहीं कैर जिसे कैर, करीर, केरिया, कैरिया और टिंट आदि कई नामों से जाना जाता है। कैर का पौधा मुख्य रूप से शुष्क जलवायु में लगाया जाता है। इसका पौधा सर्दी के मौसम में ठीक से विकास नहीं करता है। इसलिए इस मौसम में इसे नहीं उगाया जा सकता है। इसके पौधे पर पत्तियां नहीं पाई जाती है। इसके पौधे को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि इसकी जड़े भूमि में अधिक गहराई तक जाती हैं। इसकी खेती रेतीली और बंजर दोनों प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। राजस्थान के मरुस्थल में इसका पौधा जंगली रूप में पाया जाता हैं। इसे प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पौधों से ही इसकी पौध और बीज तैयार कर उन्हें नए पौधे के रूप में लगाया जाता है। जुलाई का महीना इसकी पौध की रोपाई के लिए उपयुक्त माना जाता है। इस दौरान उचित उर्वरक मिलाकर तैयार की गई मिट्टी को पॉलीथीन में भरकर उसमें इसके बीजों की रोपाई कर देनी चाहिए। इसके बीज रोपाई के करीब 10 से 15 दिन बाद ही अंकुरित हो जाते हैं। इसके बाद इसकी पौध करीब एक साल बाद खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है।
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